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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

श्रीनिवास रामानुजन

श्रीनिवास रामानुजन

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कुंभकोड़म स्थित  रामानुजन का निवास
महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से 400 किमी. दूर दक्षिण-पश्चिम में इरोड नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। रामानुजान जब एक वर्ष के थे तभी उनका परिवार कुम्भकोड़म आ गया था रामानुजन के पिता यहाँ एक कपड़ा व्यापारी की दुकान में मुनीम का कार्य करते थे। पाँच वर्ष की आयु में रामानुजन का दाखिला कुम्भकोड़म् के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया गया। सन् 1898 में इन्होंने टाउन हाईस्कूल में प्रवेश लिया और सभी विषयों में अच्छा प्रदर्शन किया। यहीं रामानुजन ने जी. एस. कार्र की गणित के परिणामों पर लिखी किताब पढ़ी और इस पुस्तक से प्रभावित होकर स्वयं ही गणित पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

कुम्भकोड़म् के शासकीय महाविद्यालय में अध्ययन के लिए रामानुजन को छात्रवृत्ति मिलती थी परंतु रामानुजन के द्वारा गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों की उपेक्षा करने पर उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। सन् 1905 में रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में सम्मिलित हुए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए। सन् 1906 एवं 1907 की प्रवेश परीक्षा का भी यही परिणाम रहा। आगे के वर्षों में रामानुजन केर की पुस्तक को मार्गदर्शक मानते हुए गणित में कार्य करते रहे और अपने परिणामों को लिखते गए जो कि 'नोटबुक' नाम से प्रसिद्ध हुए।

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रामानुजन के मित्र रामचंद्र राव (दाएं) एवं नेल्लौर के जिला कलेक्टर एस. नारायण अय्यर (बाएं)

सन् 1909 में इनका विवाह हो गया और वे आजीविका के लिए नौकरी खोजने लगे। नौकरी खोजने के दौरान रामानुजन कई प्रभावशाली व्यक्तियों के सम्पर्क में आए। 'इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक रामचंद्र राव भी उन्हीं प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक थे। रामानुजन ने रामचंद्र राव के साथ एक वर्ष तक कार्य किया। इसके लिये इन्हें 25 रू. महीना मिलता था। इन्होंने 'इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी' की पत्रिका (जर्नल) के लिए प्रश्न एवं उनके हल तैयार करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। सन् 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली और मद्रास में गणित के विद्वान के रूप में पहचाने जाने लगे। सन् 1912 में रामचंद्र राव की सहायता से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में लिपिक की नौकरी करने लगे। रामानुजन ने गणित में शोध करना जारी रखा और सन् 1913 में इन्होंने जी. एम. हार्डी को पत्र लिखा, साथ में स्वयं के द्वारा खोजे प्रमेयों की एक लम्बी सूची भी भेजी। ये पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे बिना उत्पत्ति के प्रमेय लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को ये सब बकवास लगा।  उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति (रामानुजन) या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को 9 बजे हार्डी ने अपने एक शिष्य लिटिलवुड के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नही बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उन्हें कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं। हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली।

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कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के गणितज्ञ (1) ई. एच. नेविल (2) जी. एच. हार्डी
सन् 1913 में हार्डी के पत्र के आधार पर रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय से छात्रवृत्ति मिलने लगी। अगले वर्ष सन् 1914 में हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज आने की व्यवस्था की। रामानुजन ने गणित में जो कुछ भी किया था वो सब अपने बल पर किया था। रामानुजन को गणित की कुछ शाखाओं का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था पर कुछ क्षेत्रों में उनका कोई सानी नहीं था इसलिए हार्डी ने रामानुजन को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया। स्वयं हार्डी ने इस बात को स्वीकार किया कि जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया उससे कहीं ज्यादा रामानुजन ने उन्हें सिखाया। सन् 1916 में रामानुजन ने केम्ब्रिज से बी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की।

रामानुजन और हार्डी के कार्यों ने शुरू से ही महत्वपूर्ण परिणाम दिये। यद्यपि सन् 1917 से ही रामानुजन बीमार रहने लगे थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। रामानुजन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह धर्म-कर्म को मानते थे और कड़ाई से उनका पालन करते थे। रामानुजन शाकाहारी थे और इंग्लैण्ड में रहते समय वह अपना भोजन स्वयं पकाते थे। इंग्लैण्ड की कड़ी सर्दी और उस पर कड़ा परिश्रम। फलस्वरूप रामानुजन का स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई देने लगे, तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। इधर उनके लेख उच्चकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। सन् 1918 में, एक ही वर्ष में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज तीनों का फेलो चुन गया। इससे रामानुजन का उत्साह और भी अधिक बढ़ा और वह खोजकार्य में जोर-शोर से जुट गए। सन् 1919 में स्वास्थ बहुत खराब होने की वजह से उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।

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श्रीनिवास रामानुजन (बीच में), जी. एच. हार्डी (सबसे दाएं) तथा अन्य साथी ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज

रामानुजन की स्मरण शक्ति गजब की थी। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और एक महान गणितज्ञ थे। एक बहुत ही प्रसिद्ध घटना है। जब रामानुजन अस्पताल में भर्ती थे तो डॉ. हार्डी उन्हें देखने आए। डॉ. हार्डी जिस टैक्सी में आए थे उसका नं. था 1729 । यह संख्या डॉ. हार्डी को अशुभ लगी क्योंकि 1729 = 7 x 13 x 19 और इंग्लैण्ड के लोग 13 को एक अशुभ संख्या मानते हैं। परंतु रामानुजन ने कहा कि यह तो एक अद्भुत संख्या है। यह वह सबसे छोटी संख्या है, जिसे हम दो घन संख्याओं के जोड़ से दो तरीके में व्यक्त कर सकते हैं।

1729 = 123 + 13
1729 = 103 + 93


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श्रीनिवास रामानुजन के सम्मान में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट
इलिनॉय विश्वविद्यालय के गणित के प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट ने रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया और इस शोध का निष्कर्ष पाँच पुस्तकों के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ है। ब्रूस सी. बनोड्ट कहते हैं, "मुझे यह सही नहीं लगता जब लोग रामानुजन की गणितीय प्रतिभा को किसी दैवीय या आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ कर देखते हैं। यह मान्यता ठीक नहीं है। उन्होंने बड़ी सावधानी से अपने शोध निष्कर्षों को अपनी  पुस्तिकाओं में दर्ज किया है।" सन् 1903 से 1914 के बीच, कैम्ब्रिज जाने से पहले रामानुजन अपनी पुस्तिकाओं में 3,542 प्रमेय लिख चुके थे। उन्होंने ज्यादातर अपने निष्कर्ष ही दिए थे, उनकी उत्पत्ति नहीं दी। शायद इसलिए कि वे कागज खरीदनें में सक्षम नहीं थे और वे अपना कार्य पहले स्लेट पर करते थे। बाद में बिना उपपत्ति दिए उसे पुस्तिका में लिख लेते थे।

सन् 1967 में प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को प्रोफेसर आर. ए. रेंकिन ने 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च बाम्बे (मुम्बई)' द्वारा प्रकाशित 'रामानुजन नोट बुक्स' दिखाई पर उस समय प्रोफेसर बर्नाड्ट की इस पुस्तक में कोई रुचि नहीं थी। सन् 1974 में इन्होनें एमिल ग्रॉसवॉल्ड के दो पत्रों को पढ़ा जिनमें ग्रॉसवॉल्ड ने रामानुजन के कुछ प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दी थीं। प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को लगा कि वह भी रामानुजन के प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दे सकते हैं और वह 'रामानुजन नोट बुक्स' के बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गए। प्रोफेसर बर्नाड्ट प्रिंसटन विश्वविद्यालय गए और वहाँ से 'टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च' द्वारा प्रकाशित 'रामानुजन नोट बुक्स' की एक प्रति ले आए। यह देखकर प्रोफेसर बर्नाड्ट रोमांचित हो गए कि वह कुछ और प्रमेयों की उत्पत्ति देने में सक्षम थे परंतु उस पुस्तक में ऐसे हजारों प्रमेय थे जिनकी उत्पत्ति वे नहीं दे सकते थे और इस तरह प्रोफेसर बर्नाड्ट ने अपना पूरा ध्यान रामानुजन की पुस्तकों के शोध में लगा दिया।

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Bruce C. Berndt
प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट जिन्होनें रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया

सन् 1919 में इंग्लैण्ड से वापस आने के पश्चात् रामानुजन कोदमंडी गाँव में रहने लगे। रामानुजन  का अंतिम समय चारपाई पर ही बीता। वे चारपाई पर पेट के बल लेटे-लेटे कागज पर बहुत तेज गति से लिखते रहते थे मानो उनके मस्तिष्क में गणितीय विचारों की आँधी चल रही हो। रामानुजन स्वयं कहते थे कि उनके द्वारा लिखे सभी प्रमेय उनकी कुल देवी नामागिरि की प्रेरणा हैं। भारत लौटने के पश्चात् भी उनके स्वास्थ में कोई सुधार नही हुआ और 26 अप्रैल 1920 को महज 33 वर्ष की अल्प आयु में श्रीनिवास रामानुजन का स्वर्गवास हो गया। आज भी गणितज्ञ रामानुजन की क्षमताओं से हैरान हैं। वे उनके द्वारा दी गई कई प्रमेयों को कम्प्यूटर की मदद से भी नहीं सुलझा पाते जिन्हें रामानुजन एक कागज और पेंसिल की मदद से हल करते थे।