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गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

रामानुजन से मेरा पहला परिचय

रामानुजन से (रामानुजन की जीवनी से) मेरा पहला परिचय कब हुआ - यह ठीक - ठीक याद करना कठिन है, परन्तु इतना निश्चित है यह घटना शायद पाँचवीं कक्षा से पहले की है. मैं अपने गाँव के एक दुकान में घर का कुछ सामान खरीदने गया था, तभी दुकान के डेस्क पर पड़े ढेर सारे रद्दी कागजों के बीच एक पत्रिका दिखी और मैंने उसमें देखा कि किसी गणितज्ञ की जीवनी थी. मुझे उसे हासिल करने की उत्सुकता बढ़ गई, परन्तु पता नहीं क्यों नहीं माँग पाया. मन में इच्छा को दबाकर लौट गया. मुझे दूसरी - तीसरी कक्षा से ही गणित अन्य विषयों से आसान लगता था. और गणितज्ञ के विषय में मेरी भावना थी कि वह गणित में सबकुछ जानता है. मैं भी गणितज्ञ बनना चाहता था और इसलिए उस पत्रिका में रुचि थी. परन्तु अफसोस....उसे हासिल नहीं कर पाया ! समय बीतता गया. मेरे भैया का एक पुस्तकालय हुआ करता था. एक दिन (शायद दसवीं कक्षा से पहले की बात है - ठीक से याद नहीं) वे उस पुस्तकालय को साफ-सुथरा करने और पुस्तकों को पुनः व्यवस्थित करने के लिए मुझे साथ लेकर गए. अचानक एक पत्रिका पर ध्यान गई. आँखें फटी रह गई और मेरे आश्चर्य और हर्ष की सीमा न रही - यह वही पत्रिका थी - 1987 के विज्ञान प्रगति का दिसंबर अंक. उसके साथ ही विज्ञान प्रगति के ढेरों पुराने अंक पड़े थे - प्रत्येक अंक में किसी - न - किसी गणितज्ञ की जीवनी. परन्तु यह अंक रामानुजन विशेषांक था - जो रामानुजन की जन्म - शती पर प्रकाशित हुई थी और रामानुजन पर बहुत सारी सामग्री उपलब्ध थी. इसमें गुणाकर मुले का लेख भी था जिसे इच्छुक पाठक अब राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक "संसार के महान गणितज्ञ" में पढ़ सकते हैं. मैंने उस पत्रिका को लाकर पढ़ा. तभी मुझे पता चला कि रामानुजन एक महान भारतीय गणितज्ञ और संख्या - सिद्धांत शास्त्री है और उनके कई हजार सूत्र अब भी गणितज्ञों के समझ से बाहर हैं. ये सभी सूत्र संख्याओं के गुणधर्मों से संबंधित हैं. मैं अचंभित था कि आखिर इन सूत्रों में है क्या ! मैं समझता था - संख्या के जो भी गुणधर्म हैं - वे सब भाज्य, अभाज्य, सम, विषम, महत्तम समापवर्तक, लघुतम समापवर्तक, वर्गमूल इत्यादि के अतिरिक्त क्या हो सकता है. सीमित ज्ञान के कारण मस्तिष्क को कुछ थाह नहीं मिल रहा था. अतः मैं आगे संख्या- सिद्धांत ही पढ़ने का संकल्प लिया. यद्यपि इस संकल्प में आग में घी डालने के लिए और भी कुछ करक थे (अभी बस इतना ही !!!). इसी पत्रिका में मैंने रामानुजन के नोटबुक के विषय में सुना. मैंने उसे प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो गया. इसी पत्रिका से मुझे पता चला कि यह टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान के पुस्तकालय में उपलब्ध है. इसके बाद मैं कुछ कारणों से इन नोटबुकों को भूल गया. और इन नोटबुकों से मेरा साक्षात्कार तब हुआ जब मैं 2009 में टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान, अनुप्रयुक्त गणित केंद्र, बंगलुरु में M.Sc.में प्रवेश लिया. अभी मेरे पास सभी नोटबुक उपलब्ध हैं.

रविवार, 21 दिसंबर 2014

रामानुजन – गाथा : चयनित पंक्तियाँ





रामानुजन गाथा

महानतम  भारतीय गणितज्ञ - संख्या -सिद्धांत शास्त्री श्रीनिवास रामानुजन की १२७वीं जयंती के उपलक्ष्य में सादर समर्पित !  
[प्रस्तुत कविताअंश अपनी दैनंदिनी (डायरी) गणिताञ्जलि से उद्धरित है]
 

थे रामानुजन गणितज्ञ ऐसे, जिन्हें विश्व समादर देते थे।
जिनकी मोहिनी प्रतिभा के आगे सब , नतमस्तक हो जाते थे॥ १ ॥

अंक ही उनकी दुनिया , अंकों में खोए रहते थे।
अंक ही उनका ईश्वर, उन्हें ही वे पूजते थे॥ २ ॥

हमारी भारत माता ने , कितने रत्नों को जन्म दिया।
उन रत्नों ने ज्ञानदीप से , विश्व को प्रकाशमान किया॥ ३ ॥

ईश्वी सन अठारह सौ सतासी , बाईस दिसंबर आया था।
चिरस्मरणीय विश्व में सुन्दर , क्षण यह बनकर आया था॥ ४ ॥

गौरवपूर्ण दिवस यह , रामानुजन का अवतार हुआ।
गणित के इतिहास में , नयी प्रतिभा का आविर्भाव हुआ॥ ५ ॥
..........
पाँच वर्ष की उम्र में उसने , अपना विद्यारम्भ किया ।
अपनी प्रतिभा से शिक्षकों को ,चकित करना शुरू किया॥ १० ॥
....................
गणित में सर्वप्रथम आना, रामानुजन की अभिलाषा थी ।
अपर प्राइमरी कक्षा की , फिर से आई परीक्षा थी ॥ १८ ॥

बयालीस अंक पैंतालीस में से , अंकगणित में उन्होंने प्राप्त किया ।
शत प्रतिशत अंक प्राप्त न कर पाने का , भारी पश्चाताप हुआ ॥ १९ ॥

दुखकातर ह्रदय उनका , घंटों अश्रुपात किया।
गणित ही उनका जीवन , गणित से बड़ा ही प्रेम किया ॥ २० ॥
.....................
प्रथम शोधपत्र था उनका, नवीन और अत्यंत दुरूह |
सामान्य पाठक के लिए वह, न समझा गया अनुकूल ||६८||
......................

विश्व को उनकी प्रतिभा का, अब जाकर आभास हुआ |
कई गणितज्ञों से उनका सार्थक पत्राचार हुआ ||८४||
.....................

सन तेरह में जनवरी सोलह को हार्डी को प्रथम पत्र लिखा |
प्रमेयों से परिपूर्ण वह पत्र, इतिहास में विश्व – प्रसिद्द हुआ ||८८||
..............................
प्रथमतः हार्डी ने उनके, शोधपत्र को समझा था |
उनकी अनोखी प्रतिभा को अपार अलौकिक माना था ||९८||
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ट्रिनिटी कॉलेज में प्रवेश पाकर कैम्ब्रिज वे चले गये |
अलौकिक प्रतिभा से सबको, विस्मित वे करने लगे ||११४||
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अठारह फरवरी सन अठारह, विश्व आज गौरवान्वित था |
रॉयल सोसायटी लंदन ने, अपना फैलो मनोनीत किया था ||१५२||
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मद्रास विश्विद्यालय ने भी, उनका समुचित सम्मान किया |
गणित प्राचार्य का पदविशेष, तत्क्षण उनके लिए सृजित किया ||१५८||
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भारत की प्रतिभा, भारत की काया, इंग्लैंड उनके प्रतिकूल था |
ठंडी जलवायु, गिरती सेहत, लौटना भारत श्रेयस्कर था ||१६१||

उस शोध – भूमि को छोड़ उन्होनें, भारत प्रस्थान किया |
वहां पर अब शोध न कर पाने का, उन्हें अत्यंत खेद हुआ||१६२||
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कैसे होते स्वस्थ? ईश्वर को यह मंजूर न था |
गणित – साधना को विराम देना, रामानुजन को मंजूर न था ||१७७||

अंत समय भी, मोक थीटा फंक्शन पर काम किया |
घनिष्ठ मित्र हार्डी को, उन परिणामों से सूचित किया ||१७८||
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विकट संकट में नहीं झुकने वाले, काल को वे पराजित कर न सके |
अपने अनगिनत प्रेमी जन को, वे रोने से न रोक सके ||१८३||

सन बीस में अप्रील छब्बीस को, वे ब्रह्माण्ड में समा गये |
अपनी स्मृति को वे जनमानस में छोड़ गये ||१८४||